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*श्रीरामायण-तत्त्व-रहस्य भाग ४*
गोवर्धनपीठाधीश्वर पूज्यपाद जगद्गुरु श्रीशंकराचार्य स्वामीजी श्री १०८ श्रीभारती कृष्णतीर्थजी महाराज

गतांक से -

इसी प्रकारसे नर होकर नारायण बननेके लिये, अर्थात् रोना छोड़कर गाते रहने के लिये, नारायणको ही अपने शरीरादि रूपी रथका सारथि बनाकर, श्रद्धा, भक्ति और प्रेम के बलसे निर्भय तथा निश्चिन्त होकर, उसीके हाथमें अपने रथकी लगाम सौंपकर, उसीकी आज्ञानुसार अपने वर्णाश्रमादि अधिकारसिद्ध कर्तव्यों को निःस्पृहता और केवल कर्तव्य बुद्धि से पूरा करके, भक्तियुक्त कर्मयोगसे अन्तःकरणको शुद्धि के द्वारा ज्ञान और मोक्ष प्राप्त करनेमें विजयी होना होगा।

श्रीमद्भागवत में श्रीभगवान् श्रीकृष्णचन्द्रादि रूपसे इसी तत्वको अपने इतिहास तथा जीवनचरित्रसे दिखाया है कि नारायण का यही लक्षण है जो ऊपर बताया गया है।

श्रीमद्रामायण में श्री भगवान् ने श्रीरामचन्द्र रूप से पधारकर प्रत्येक व्यवहार में अपनी आदर्शभूत जीवन प्रणाली से मनुष्यजातिको यह दिखलाया है कि मनुष्यमात्रको किसप्रकार संसारके अनेक प्रकारके दुःखोंका सामना करते हुए धर्मका पालन करना है। कर्म, भक्ति और ज्ञान इन तीनों काण्डोंकी दृष्टिले भी भगवान् श्रीरामचन्द्रका इतिहास हमलोगोंके लिये अत्यन्त श्रावश्यक और उपयुक्त शिक्षा देता है।

अनेक प्रकारके सम्बन्धियों के साथ व्यवहार में यथोचित सदाचरण की दृष्टि से देखें तो भगवान् श्रीरामचन्द्रने अपने गुरुजन, माता, विमाता, पिता, भ्रातृगण, सहायक, सेवक, सर्वसाधारण प्रजा यादि सभी सम्बन्धियोंके साथ यहाँ तक कि शत्रुओं के साथ भी ऐसा सुन्दर आदर्श व्यवहार किया है जो बात-बातमें हम लोगोंके लिये अत्युत्तम रीतिसे शिक्षाप्रद है और जिसके विशेष विस्तारपूर्वक वर्णनकी कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि श्रीरामचन्द्र सम्बन्धी ये सभी बातें जगतप्रसिद्ध हैं।

परन्तु इस प्रसंग में इस बात के लिये विशेष रूपसे ध्यान देना होगा कि भगवान् की दया तथा प्रेमके पात्र बनने के लिये प्रेम तथा भक्ति के अतिरिक्त और अन्य किसी भी प्रयोजक लक्षणकी आवश्यकता नहीं है। इस विषयमें श्रीरामचन्द्रजीके माता, पिता, गुरु आदि खास सम्बन्धियोंके अतिरिक्त, अनागरिक अरण्यवासी गुह, पशुरूप में आये हुए महावीरादि वानरगण और राक्षस जात्यन्तर्गत विभीषण आदिका स्मरण कराना पर्याप्त है। विस्तृत वर्णनकी कोई आवश्यकता नहीं ।

कर्मकाण्डके अन्तर्गत क्षत्रिय धर्मकी खास दृष्टि से देखा जाय तो उसमें अपने सुख-दुःखादिकी परवा न करते हुए, केवल धर्म-बुद्धिसे तथा विना ही द्वेष शत्रुनिबर्हण करना और प्रजापालन करना ही मुख्य है। भगवान् श्रीरामचन्द्रजी इन दोनों अंशों में भी अनुपम ही थे।

शत्रुनिबर्हण में भगवान् श्रीरामचन्द्रजी अपनी बाल्यावस्था में किये हुए ताडकासंहारसे लेकर अन्त में रावणादिके संहारतक द्वेषरहित हो केवल धर्मबुद्धि और सत्यप्रतिज्ञा के साथ अद्वितीय शूरता और पराक्रमसे युद्ध करनेवाले ही थे।इस बातका पता इसीसे लगता है कि जब श्रीलक्ष्मणजी इन्द्रजितको किसी प्रकार किसी भी अस्त्र-शस्त्र दिसे परास्त न कर सके तब उन्होंने ऐन्द्रास्त्र हाथमें लेकर कहा कि-

धर्मात्मा सत्यसन्धश्च रामो दाशरथिर्यदि ।
समरे चाप्रतिद्वन्द्वः शरैनं जहि रावणिम् ||

'यदि दशरथनन्दन श्रीराम धर्मात्मा, सत्यसन्ध और रण में प्रतिद्वन्द्वी न रखनेवाले हों तो यह बाण इन्द्रजितका वध करे। इसप्रकार श्रीरामचन्द्रजी की धर्मात्मता, सत्यप्रतिज्ञता और अद्वितीय युद्धवीरता पर मन्त्ररूपी शपथ करके छोड़े हुए एक ही बाणसे उसी शपथके बलसे उन्होंने इन्द्रजितको मार डाला था। भगवान् पूर्णांवतार श्रीकृष्णचन्द्रजीने भी श्रीभगवद्गीता के दशमाध्याय में अपनी विभूतियोंके वर्णन के प्रसंग में 'रामः शस्त्रभृतामहम्' कहकर स्पष्ट किया है कि शस्त्रधारियों अर्थात् युद्धवीरोंमें श्रीरामचन्द्रजी सर्वोत्तम थे।

-
क्रमशः
साभार : कल्याण
संकलन : पं. हीरेनभाई त्रिवेदी,क्षेत्रज्ञ
श्रीवैदिकब्राह्मणः🚩गुजरात
परमधर्मसंसद१००८

https://www.instagram.com/shrivaidikbrahmanah



tg-me.com/HarShankar/211
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*श्रीरामायण-तत्त्व-रहस्य भाग ४*
गोवर्धनपीठाधीश्वर पूज्यपाद जगद्गुरु श्रीशंकराचार्य स्वामीजी श्री १०८ श्रीभारती कृष्णतीर्थजी महाराज

गतांक से -

इसी प्रकारसे नर होकर नारायण बननेके लिये, अर्थात् रोना छोड़कर गाते रहने के लिये, नारायणको ही अपने शरीरादि रूपी रथका सारथि बनाकर, श्रद्धा, भक्ति और प्रेम के बलसे निर्भय तथा निश्चिन्त होकर, उसीके हाथमें अपने रथकी लगाम सौंपकर, उसीकी आज्ञानुसार अपने वर्णाश्रमादि अधिकारसिद्ध कर्तव्यों को निःस्पृहता और केवल कर्तव्य बुद्धि से पूरा करके, भक्तियुक्त कर्मयोगसे अन्तःकरणको शुद्धि के द्वारा ज्ञान और मोक्ष प्राप्त करनेमें विजयी होना होगा।

श्रीमद्भागवत में श्रीभगवान् श्रीकृष्णचन्द्रादि रूपसे इसी तत्वको अपने इतिहास तथा जीवनचरित्रसे दिखाया है कि नारायण का यही लक्षण है जो ऊपर बताया गया है।

श्रीमद्रामायण में श्री भगवान् ने श्रीरामचन्द्र रूप से पधारकर प्रत्येक व्यवहार में अपनी आदर्शभूत जीवन प्रणाली से मनुष्यजातिको यह दिखलाया है कि मनुष्यमात्रको किसप्रकार संसारके अनेक प्रकारके दुःखोंका सामना करते हुए धर्मका पालन करना है। कर्म, भक्ति और ज्ञान इन तीनों काण्डोंकी दृष्टिले भी भगवान् श्रीरामचन्द्रका इतिहास हमलोगोंके लिये अत्यन्त श्रावश्यक और उपयुक्त शिक्षा देता है।

अनेक प्रकारके सम्बन्धियों के साथ व्यवहार में यथोचित सदाचरण की दृष्टि से देखें तो भगवान् श्रीरामचन्द्रने अपने गुरुजन, माता, विमाता, पिता, भ्रातृगण, सहायक, सेवक, सर्वसाधारण प्रजा यादि सभी सम्बन्धियोंके साथ यहाँ तक कि शत्रुओं के साथ भी ऐसा सुन्दर आदर्श व्यवहार किया है जो बात-बातमें हम लोगोंके लिये अत्युत्तम रीतिसे शिक्षाप्रद है और जिसके विशेष विस्तारपूर्वक वर्णनकी कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि श्रीरामचन्द्र सम्बन्धी ये सभी बातें जगतप्रसिद्ध हैं।

परन्तु इस प्रसंग में इस बात के लिये विशेष रूपसे ध्यान देना होगा कि भगवान् की दया तथा प्रेमके पात्र बनने के लिये प्रेम तथा भक्ति के अतिरिक्त और अन्य किसी भी प्रयोजक लक्षणकी आवश्यकता नहीं है। इस विषयमें श्रीरामचन्द्रजीके माता, पिता, गुरु आदि खास सम्बन्धियोंके अतिरिक्त, अनागरिक अरण्यवासी गुह, पशुरूप में आये हुए महावीरादि वानरगण और राक्षस जात्यन्तर्गत विभीषण आदिका स्मरण कराना पर्याप्त है। विस्तृत वर्णनकी कोई आवश्यकता नहीं ।

कर्मकाण्डके अन्तर्गत क्षत्रिय धर्मकी खास दृष्टि से देखा जाय तो उसमें अपने सुख-दुःखादिकी परवा न करते हुए, केवल धर्म-बुद्धिसे तथा विना ही द्वेष शत्रुनिबर्हण करना और प्रजापालन करना ही मुख्य है। भगवान् श्रीरामचन्द्रजी इन दोनों अंशों में भी अनुपम ही थे।

शत्रुनिबर्हण में भगवान् श्रीरामचन्द्रजी अपनी बाल्यावस्था में किये हुए ताडकासंहारसे लेकर अन्त में रावणादिके संहारतक द्वेषरहित हो केवल धर्मबुद्धि और सत्यप्रतिज्ञा के साथ अद्वितीय शूरता और पराक्रमसे युद्ध करनेवाले ही थे।इस बातका पता इसीसे लगता है कि जब श्रीलक्ष्मणजी इन्द्रजितको किसी प्रकार किसी भी अस्त्र-शस्त्र दिसे परास्त न कर सके तब उन्होंने ऐन्द्रास्त्र हाथमें लेकर कहा कि-

धर्मात्मा सत्यसन्धश्च रामो दाशरथिर्यदि ।
समरे चाप्रतिद्वन्द्वः शरैनं जहि रावणिम् ||

'यदि दशरथनन्दन श्रीराम धर्मात्मा, सत्यसन्ध और रण में प्रतिद्वन्द्वी न रखनेवाले हों तो यह बाण इन्द्रजितका वध करे। इसप्रकार श्रीरामचन्द्रजी की धर्मात्मता, सत्यप्रतिज्ञता और अद्वितीय युद्धवीरता पर मन्त्ररूपी शपथ करके छोड़े हुए एक ही बाणसे उसी शपथके बलसे उन्होंने इन्द्रजितको मार डाला था। भगवान् पूर्णांवतार श्रीकृष्णचन्द्रजीने भी श्रीभगवद्गीता के दशमाध्याय में अपनी विभूतियोंके वर्णन के प्रसंग में 'रामः शस्त्रभृतामहम्' कहकर स्पष्ट किया है कि शस्त्रधारियों अर्थात् युद्धवीरोंमें श्रीरामचन्द्रजी सर्वोत्तम थे।

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क्रमशः
साभार : कल्याण
संकलन : पं. हीरेनभाई त्रिवेदी,क्षेत्रज्ञ
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परमधर्मसंसद१००८

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BY श्रीमद आद्य शंकराचार्य परम्परा के दिव्य संदेश 🚩


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Start with a fresh view of investing strategy. The combination of risks and fads this quarter looks to be topping. That means the future is ready to move in.Likely, there will not be a wholesale shift. Company actions will aim to benefit from economic growth, inflationary pressures and a return of market-determined interest rates. In turn, all of that should drive the stock market and investment returns higher.

However, analysts are positive on the stock now. “We have seen a huge downside movement in the stock due to the central electricity regulatory commission’s (CERC) order that seems to be negative from 2014-15 onwards but we cannot take a linear negative view on the stock and further downside movement on the stock is unlikely. Currently stock is underpriced. Investors can bet on it for a longer horizon," said Vivek Gupta, director research at CapitalVia Global Research.

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